मेरी दोस्तों, सहेलियों के चेहरे पर अक्सर एक अनजानी चुप्पी छाई रहती है, जब वो नितांत अकेले में होती हैं, और मैं उन्हें तब अक्सर ध्यान से देखती रहती हूँ, सोचती हूँ कि वो वही सब सोच रही होंगी जो मैं अकेले में सोचा करती हूँ.
अपना भविष्य, अपना वर्तमान, अपनी दिक्कतें, अपने ग़म, अपनी तकलीफें, अपने लिए सुने हुवे ताने, कसे हुवे फिकरे, घूरती हुयी ढेरों आँखें, कचोटती निगाहें........शरीर की कमजोरी, खून और माहवारी की दुश्वारियाँ, घर वालों की उम्मीदें....उफ़ मार डालेंगी ये सब चीजें, ये पहाड़ सा भार, समाज और परिवार का.
कितनी जल्दी दिमाग से बूढी हो गयी हैं हम लडकियां अपनी जवान जिस्म को संभाल के ढोने की कोशिश करते हुवे....जाने कौन है इसके लिए जिम्मेदार पर जो भी है उसको माफ़ न करिये प्लीज़....उन कुत्त्तों शरीफ्जादों को..... कभी माफ़ न करना....और मैं भी नहीं करुँगी....
गन्दी
3/24/2008
3/08/2008
तमाशा है महिला दिवस, क्यों नहीं करते अपने घर की स्त्रियों को आजाद?
साल के एक दिन केवल याद करने के लिए है महिला दिवस। अगर ऐसा न होता तो जो मर्द महिला दिवस के बारे में लिखते हैं, वो अपने घरों में अपनी महिलाओं--मां, बेटियों, पत्नी....को कभी कैद करके नहीं रखते। ये तो कैद ही है ना...कि तुम कहां गई थी, किससे बात कर रही थी, क्या पहन रखा है, छत पर क्यों खड़ी थी, टाइम से खाना क्यों नहीं बनाया, तुमने क्यों सब खा लिया, सड़क पर वहां क्या कर रही थी, घर देर से क्यों लौटी, किसका फोन आया था, इतनी देर तक क्यों सोती रही.....
सैकड़ों सवाल इसी तरह के मर्दों की जुबान से निकलते हैं और स्त्रियों को एक सवाल के रूप में खड़ा कर देते हैं। उनकी आत्मा धीरे धीरे इन सवालों के अनुरूप बनने के लिए तैयार होने लगती है। इस प्रकार बन जाती है एक ऐसी स्त्री जो खुद होते हुए भी खुद नहीं होती। महिला दिवस पर इन तमाशाइयों से केवल एक सवाल करना चाहिए। केवल एक सलाह बोलना चाहिए....आप अपने घर में कृपया अपनी महिलाओं को आजाद कर दो, उन्हें पुरुषों जैसी छूट और अधिकार दे दो, उन्हें रोको टोको मत, वो समझदार हैं, उन्हें खुद पता है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।
सेक्स और शरीर की पर्यायवाची बन चुकी स्त्रियों को मुक्ति तभी मिलेगी जब वो सेक्स और शरीर से उपर उठें और यह तभी संभव है जब वो अपने पैरों पर, अपने कदमों पर, अपने दिमाग के आधार पर जीना, चलना, बोलना और लड़ना सीख लें।
नारेबाजी करने वाले पुरुषों, बौद्धिकता झाड़ने वाले विद्वानों, खुद को सहज और सरल बताने वाले मर्दों से अनुरोध है कि जितना वो अपने बेटे को प्यार देते हैं, जितना वो अपने पुत्र को छूट देते हैं, जितना वो अपने लाडले के लिए चिंतित रहते हैं, बस....उतना ही, न उससे ज्यादा और न उससे कम, अपनी बिटिया, अपनी पत्नी, अपनी बहन और अपनी मां के लिए करें। तभी हम सही मायनों में महिला दिवस को सार्थकता प्रदान करेंगे।
सभी साथियों को महिला दिवस की शुभकामनाएं देते हुए अंत में रघुवीर सहाय की चार लाइनों को सिर के बल खड़ाकर आठ दस लाइनें लिखना चाहूंगी....
मत पढिए गीता
मत बनिए सीता
मत स्वीकार कीजिए
किसी मूर्ख की बनना परिणिता
मत पकाइये भर भर तसला भात
मत खाइए सब कुछ करके
भी लात
आपही के हाथ में है
आपकी शान
आपको ही बचानी है खुद
की आन
हर पल, हर पग पर लड़ना पड़े
तो लड़िए
हर चीज के लिए कहना पड़े
तो कहिए
बहुत सुना, बहुत रोया, बहुत सोचा
अब चलिए
बहुत सहा, बहुत झेला, बहुत सीखा
अब करिए
निकलिए दर ओ दीवार के पार
दूर तक फैली है धरती
दूर तक फैला है आसमान
छू लो चूम लो उस तारे को
जो अकेले में भी चकमक
अड़ा है, खड़ा है बनकर महान
आपकी
गंदी लड़की
सैकड़ों सवाल इसी तरह के मर्दों की जुबान से निकलते हैं और स्त्रियों को एक सवाल के रूप में खड़ा कर देते हैं। उनकी आत्मा धीरे धीरे इन सवालों के अनुरूप बनने के लिए तैयार होने लगती है। इस प्रकार बन जाती है एक ऐसी स्त्री जो खुद होते हुए भी खुद नहीं होती। महिला दिवस पर इन तमाशाइयों से केवल एक सवाल करना चाहिए। केवल एक सलाह बोलना चाहिए....आप अपने घर में कृपया अपनी महिलाओं को आजाद कर दो, उन्हें पुरुषों जैसी छूट और अधिकार दे दो, उन्हें रोको टोको मत, वो समझदार हैं, उन्हें खुद पता है कि उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।
सेक्स और शरीर की पर्यायवाची बन चुकी स्त्रियों को मुक्ति तभी मिलेगी जब वो सेक्स और शरीर से उपर उठें और यह तभी संभव है जब वो अपने पैरों पर, अपने कदमों पर, अपने दिमाग के आधार पर जीना, चलना, बोलना और लड़ना सीख लें।
नारेबाजी करने वाले पुरुषों, बौद्धिकता झाड़ने वाले विद्वानों, खुद को सहज और सरल बताने वाले मर्दों से अनुरोध है कि जितना वो अपने बेटे को प्यार देते हैं, जितना वो अपने पुत्र को छूट देते हैं, जितना वो अपने लाडले के लिए चिंतित रहते हैं, बस....उतना ही, न उससे ज्यादा और न उससे कम, अपनी बिटिया, अपनी पत्नी, अपनी बहन और अपनी मां के लिए करें। तभी हम सही मायनों में महिला दिवस को सार्थकता प्रदान करेंगे।
सभी साथियों को महिला दिवस की शुभकामनाएं देते हुए अंत में रघुवीर सहाय की चार लाइनों को सिर के बल खड़ाकर आठ दस लाइनें लिखना चाहूंगी....
मत पढिए गीता
मत बनिए सीता
मत स्वीकार कीजिए
किसी मूर्ख की बनना परिणिता
मत पकाइये भर भर तसला भात
मत खाइए सब कुछ करके
भी लात
आपही के हाथ में है
आपकी शान
आपको ही बचानी है खुद
की आन
हर पल, हर पग पर लड़ना पड़े
तो लड़िए
हर चीज के लिए कहना पड़े
तो कहिए
बहुत सुना, बहुत रोया, बहुत सोचा
अब चलिए
बहुत सहा, बहुत झेला, बहुत सीखा
अब करिए
निकलिए दर ओ दीवार के पार
दूर तक फैली है धरती
दूर तक फैला है आसमान
छू लो चूम लो उस तारे को
जो अकेले में भी चकमक
अड़ा है, खड़ा है बनकर महान
आपकी
गंदी लड़की
3/03/2008
हाथ उठाने वालों को लात मारने वाली बीवियां मिलनी चाहिए
बहुत दिनों बाद दिल्ली में रहने वाली अपने एक परिचित के घर गई। वहां उनके हसबैंड आफिस गए हुए थे और बच्चे स्कूल। उनसे हाय हलो के बाद जब बात शुरू हुई तो देखा कि उनके चेहरे पर चोट के निशान हैं और आंखें सूजी हुई हैं। मैंने पूछा, क्या हुआ, कुछ हुआ है क्या। उन्होंने शुरू में तो बात को बदलना चाहा और कुछ नहीं हुआ कहकर पाने चाय लाने चली गईं। मैं भी उनके साथ किचन में चली गई। वहां उन्हें थोड़े प्यार से अपने सीने से लगाकर पूछा तो वो रोने लगीं। उन्हें चुप कराया और दिलासा दिया। उन्होंने जो बताया उसे सुनकर मुझे बेहद ग्लानि हुई। उनके हसबैंड महोदय महीने में दो चार बार किसी न किसी छोटी बात पर उन्हें पीट दिया करते हैं। आज भी ऐसे ही किसी बात पर, टाइम से टिफिन न बनने पर पहले वो गुस्सा हुए और जब भाभी जी ने जवाब दे दिया तो वो उबल पड़े। उन्हें पहले धक्का दिया फिर पिटाई शुरू कर दी।
कब बंद होगा यह सब। घर में रहने, हाउसवाइफ बनने की मजबूरी के चलते जाने कितनी ही महिलाएं रोज रोज घुट घुट कर पिट पिट कर जिंदगी जीती हैं। इसीलिए मैं हमेशा लड़कियों से कहती हूं कि पढ़ लिखकर अपने पैर पर खड़े हो जाना फिर शादी करना ताकि अगर पुरुष खराब निकला, और जो कि खराब निकलता ही है तो तुम उनके हाथ उठाने पर लात उठाकर मारना। भले ही उसे छोड़कर अकेले गुजर बसर करना पड़े।
इस देश के कायर पुरुषों की मर्दानगी अपनी बीवियों पर ही निकलती है। मुफ्त में गुलाम पा जाते हैं जो उन्हें देह सुख देने के साथ नौकरों का भी सारा काम कर देती हैं। खाना पकाना पोंछा बर्तन दुकानदारी आना जाना......। तो ये सुख उठाने वाले पुरुषों को अगर लात मारने वाली पत्नी मिल जाए तो कितना मजा आए। अब तो कभी कभी यही लगता है कि सब कुछ छोड़ छाड़कर क्यों न सताई हुई औरतों को न्याय दिलाने के लिए लड़ा जाए और महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए जागरूक किया जाए। यह बहुत बड़ा काम है जिसे अभी तक किया जाना बाकी है।
कब बंद होगा यह सब। घर में रहने, हाउसवाइफ बनने की मजबूरी के चलते जाने कितनी ही महिलाएं रोज रोज घुट घुट कर पिट पिट कर जिंदगी जीती हैं। इसीलिए मैं हमेशा लड़कियों से कहती हूं कि पढ़ लिखकर अपने पैर पर खड़े हो जाना फिर शादी करना ताकि अगर पुरुष खराब निकला, और जो कि खराब निकलता ही है तो तुम उनके हाथ उठाने पर लात उठाकर मारना। भले ही उसे छोड़कर अकेले गुजर बसर करना पड़े।
इस देश के कायर पुरुषों की मर्दानगी अपनी बीवियों पर ही निकलती है। मुफ्त में गुलाम पा जाते हैं जो उन्हें देह सुख देने के साथ नौकरों का भी सारा काम कर देती हैं। खाना पकाना पोंछा बर्तन दुकानदारी आना जाना......। तो ये सुख उठाने वाले पुरुषों को अगर लात मारने वाली पत्नी मिल जाए तो कितना मजा आए। अब तो कभी कभी यही लगता है कि सब कुछ छोड़ छाड़कर क्यों न सताई हुई औरतों को न्याय दिलाने के लिए लड़ा जाए और महिलाओं को उनके अधिकारों के लिए जागरूक किया जाए। यह बहुत बड़ा काम है जिसे अभी तक किया जाना बाकी है।
बलात्कारियों के लिंग काट लें तो कैसा रहेगा?
जब भी अखबार में बलात्कार की खबरें पढ़ती हूं तो सोचती हूं कि आखिर ये क्यों किया जाता है? और इसका उत्तर तलाशते तलाशते हजार जवाब और हजार सवाल में आ जाते हैं। क्या कभी वो दिन भी आएगा जब समाज स्त्रियों को इतनी छूट देगा जितनी पुरुषों को और स्त्रियां भी कुंठा के चलते या फ्रस्ट्रेशन के चलते या मौका मिलने के चलते किसी पुरुष का बलात्कार कर लें। मैं किसी तरह की बलात्कार की पक्षधर नहीं हूं लेकिन अब तक बलात्कार विरोधी तमाम कानून बनाये जाने के बाद भी अगर बलात्कार नहीं रुक रहे हैं तो इसका इलाज क्या है?
एक सीधा सच्चा तरीका समझ में आता है। कुछ स्त्रियों को पहल करनी चाहिए कि वो पुरुषों का बलात्कार करना शुरू कर दें और बलात्कार करके उन्हें छोड़ें न, उनके लिंग ही काट लें, ताकि वो फिर पूरी जिंदगी स्त्रियों के दहशत में जिएं। और जब ये घटनाएं अखबारों में छपने लगेंगी तो ढेर सारे पुरुषों की थूक सरक जाएगी और वो किसी भी लड़की या स्त्री से बलात्कार करने के पहले अपनी लिंग की सुरक्षा के बारे में दस बार सोचेंगे। उनके मन में खौफ बैठाना जरूरी है। और इसके लिए यह किसी तरह जरूरी नहीं कि स्त्रियां बलात्कार करके ही खौफ पैदा करें लेकिन कानून बलात्कारियों को फांसी न दे पाने के कारण, और पीड़िताओं को तुरंत न्याय न मिलने के कारण बलात्कार करने वालों का हौसला हमेशा बुलंद रहता है। इसीलिए मुझे एक फिल्म के वो सीन याद आ रहे हैं जिसमें डिंपल कपाड़िया बलात्कारियों से बदला लेने के दौरान उनके लिंग ही काट लेती है। वो फिल्म देखने के बाद पता नहीं क्यों, मेरे मन में हमेशा यह भावना रहती है कि बलात्कारियों को सिर्फ एक ही सजा देनी चाहिए और वह उनका लिेंग काटकर।
आपको मेरा सुझाव बुरा लग सकता है लेकिन आप ही खुद बताइए न कि इस समस्या का व्यावहारिक समाधान क्या हो सकता है?
गंदी
एक सीधा सच्चा तरीका समझ में आता है। कुछ स्त्रियों को पहल करनी चाहिए कि वो पुरुषों का बलात्कार करना शुरू कर दें और बलात्कार करके उन्हें छोड़ें न, उनके लिंग ही काट लें, ताकि वो फिर पूरी जिंदगी स्त्रियों के दहशत में जिएं। और जब ये घटनाएं अखबारों में छपने लगेंगी तो ढेर सारे पुरुषों की थूक सरक जाएगी और वो किसी भी लड़की या स्त्री से बलात्कार करने के पहले अपनी लिंग की सुरक्षा के बारे में दस बार सोचेंगे। उनके मन में खौफ बैठाना जरूरी है। और इसके लिए यह किसी तरह जरूरी नहीं कि स्त्रियां बलात्कार करके ही खौफ पैदा करें लेकिन कानून बलात्कारियों को फांसी न दे पाने के कारण, और पीड़िताओं को तुरंत न्याय न मिलने के कारण बलात्कार करने वालों का हौसला हमेशा बुलंद रहता है। इसीलिए मुझे एक फिल्म के वो सीन याद आ रहे हैं जिसमें डिंपल कपाड़िया बलात्कारियों से बदला लेने के दौरान उनके लिंग ही काट लेती है। वो फिल्म देखने के बाद पता नहीं क्यों, मेरे मन में हमेशा यह भावना रहती है कि बलात्कारियों को सिर्फ एक ही सजा देनी चाहिए और वह उनका लिेंग काटकर।
आपको मेरा सुझाव बुरा लग सकता है लेकिन आप ही खुद बताइए न कि इस समस्या का व्यावहारिक समाधान क्या हो सकता है?
गंदी
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